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आलोचना

वेदांत और युवा

रजनीश कुमार शुक्ल


वेदांत चराचर जगत् को एक विशिष्‍ट विधि से देखने की प्रणाली है। इस विश्‍व में चर, अचर, स्‍थावर, जंगम जो कुछ भी है उन सबको चैतसिक प्रकाश की अभिव्‍यक्ति के रूप में देखना यही वेदांत के सभी संप्रदायों में भाषा-भेद तथा प्रतिपादन-विधि भेद के होते हुए भी मुख्‍य प्रतिपाद्य विषय के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के अंत में स्‍वामी विवेकानन्‍द ने विश्‍व मानचित्र पर वेदांत को भारत के धर्म के रूप में प्रतिस्‍थापित किया। इस रूप में उन्‍होंने वेदांत को उपासनामूलक धर्म से अलग हटकर एक ऐसे नीतिमूलक धर्म आचार धर्म या जीवन-दर्शन के रूप में प्रस्‍तुत किया जिसमें आनुष्‍ठानिकता के स्‍थान पर बोध तथा बोधजनित व्‍यवहार पर बल दिया गया।

वेदांतीय चिंतन के इतिहास पर विहंगम दृष्टि डालने पर यह नवीन युग का सूत्रपात था। आदिशंकर के बाद स्‍वामी विवेकानन्‍द वे दूसरे काषाय वेशधारी संन्‍यासी हैं जिन्‍होंने वेदांत को जीवन के चतुर्थ चरण में स्‍वाध्‍याय का विषय न मानकर सभी जीवनावस्‍थाओं में तथा वैयक्तिक जीवन से लेकर समस्‍त समाज के जीवनांतरण की प्रणाली के रूप में सशक्‍त तथा युक्तियुक्‍त प्रतिपादन किया। वेदांत जो लम्‍बे समय से गिरी-कंदरा तथा गहन गुफ़ाओं में बंद होकर कुछ विशिष्‍ट साधकों की साधना की सामग्री होकर रह गया था उसे वहाँ से बाहर लाकर सर्व-समाज की वस्‍तु बनाने का उन्‍होंने अद्भुत पराक्रम किया। गीता के स्‍वाध्‍याय से लेकर फुटबाल के खेल तक सर्वत्र वेदांत बोध के अवकाश की प्रतिस्‍थापना एवं एक प्रकार की चिन्मयता का उपदेश करते हुए स्‍वामी विवेकानन्‍द ने इसे मात्र मोक्षकामियों के लिए उपयोगी दर्शन के रूप में न सीमित करते हुए जीवन के हर क्षेत्र में कुशलता निर्माण की प्रणाली के रूप में प्रस्‍तुत किया। इसको स्‍वामीजी ने एक अभियान के तौर पर चलाया और कालान्‍तर में अनेक विचारकों ने अकादमिक तथा गैर-अकादमिक सभी तरीकों से व्‍यावहारिक जीवन-प्रणाली अथवा विज्ञान के युग के धर्म के रूप में प्रतिष्ठित करने के बहुविध प्रयत्‍न किए।

इस महनीय प्रयास में योगदान करने वाले विचारकों, दार्शनिकों तथा संन्‍यासियों की एक लंबी श्रृंखला देखी जा सकती है। किंतु बीसवीं शताब्‍दी में जिस व्‍यक्ति ने वेदांत को विश्‍व-धर्म के रूप में प्रस्‍तुत करके अध्‍यात्‍म तथा विज्ञान के बीच के कथित अंतर को समाप्‍त करने की दिशा में सर्वाधिक योगदान दिया है उस महान व्‍यक्ति का नाम स्‍वामी चिन्‍मयानन्‍द है। स्‍वामीजी ने वेदांत को युवाओं के युग धर्म के रूप में प्रस्‍तुत किया, किसी भी समकालीन विचारक के प्रयासों की आलोचना किए बिना, पूर्ववर्ती वेदांत विचारकों के योगदान को स्‍वीकार करते हुए, भगवद्गीता के अध्‍ययन से वेदांत को विश्‍व-धर्म बनाने की संभावना को प्रस्‍तुत करते हुए उसे बहुतर विस्‍तीर्ण करने का जो अभिनव कार्य स्‍वामी चिन्‍मयानन्‍द ने किया है वह अविस्‍मरणीय एवं सर्वविध अनुकरणीय है।

वेदांत जीवन के उत्तरार्ध का धर्म नहीं है अपितु यह जीवन की प्रत्‍येक अवस्‍था के जीवन संघर्ष में सकारात्‍मक परिणाम लाने की अनुष्‍ठान विधि है, इस भाव-भूमि को स्‍वामी विवेकानन्‍द ने विश्‍वपटल पर पहली बार प्रतिस्‍थापित किया तो स्‍वामी चिन्‍मयानन्‍द और चिन्‍मय मिशन ने इस अवधारणा को बहुश: विस्‍तारित, पोषित और पल्‍लवित किया। आज किसी को भी वेदांतीय जीवन-प्रणाली का परिचय कराने की आवश्‍यकता नहीं है। समस्‍त विश्‍व में इसकी सहज स्‍वीकृति बनी है। इस सहज स्‍वीकृति के पीछे जिन महान व्‍यक्तियों का योगदान हैं उनमें स्‍वामी चिन्‍मयानन्‍द अनन्‍यतम, असाधारण तथा लोकोत्तर हैं।

वेदांत युवाओं में किस रूप में उपयोगी हो सकता है, इसकी समीक्षा के लिए स्‍वामीजी के चिंतन का ही उपयोग किया है अथवा यह भी कहा जा सकता है कि मैंने उसी रूप में वेदांत को युवाजन के लिए लाभकारी होना स्‍वीकार किया है। वेदांत की बहुपयोगिता को स्‍वामीजी ने दिसम्‍बर 1992 में संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ को संबोधित करते हुए युक्ति-युक्‍त रूप से सिद्ध किया है। इस व्‍याख्‍यान के द्वारा स्‍वामीजी ने बिना स्‍व के गौरव-गान के ही अत्यंत सुष्‍ठु रीति से यह प्रतिपादित किया है कि आज की समस्‍याओं के समाधान का एकमात्र रास्‍ता भारत की वेदांत दृष्टि ही है।

आज संपूर्ण पृथ्‍वी गहरे संकट में है, समूचे ग्रह का अस्तित्‍व ही संकटापन्‍न है। राष्‍ट्रों के बीच युद्ध, सभ्‍यताओं के संघर्ष ने समस्‍त मानव जाति को अस्तित्‍वपरक गहन संकट में डाल दिया है। अंध-धार्मिकता के प्रति विद्रोह के फलस्‍वरूप विकसित आधुनिक सभ्‍यता ने क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर इन पाँचों ही तत्त्वों को दूषित कर दिया है। परिणामत: यह कह पाना कठिन है कि यह धरती कब तक बनी/बची रहेगी। मनुष्‍य ने प्रकृति पर विजय पाने की अपनी अदम्‍य लालसा के चलते प्रकृति के मूल स्‍वरूप में जिस प्रकार की छेड़-छाड़ की है, जैसा भयावह हस्‍तक्षेप किया है, उसका फल यह है कि प्राकृतिक साम्‍य समाप्‍त हो गया है, धरती विक्षुब्‍ध हो गई है। आज यह कहना बेमानी हो गया है कि ''माताभूमि: पुत्रोSहम पृथिव्‍या:''। यह संकट जीवन-प्रणाली के द्वारा उत्‍पन्‍न हुआ संकट है। आधुनिक जीवन-प्रणाली मनुष्‍य तथा अन्‍य जीवधारी एवं जड़ प्रकृति को विविक्‍त रूप में देखने की प्रणाली है। यह कथित आधुनिक प्रणाली पश्चिम में सांस्‍थानिक धर्म के विरोध में विकसित हुई थी। यद्यपि शक्तिशाली धर्माम्‍नाय के विरुद्ध हुए इस विद्रोह को पश्चिम ने कभी भी सामी मूल के खिलाफ विद्रोह न कहते हुए इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण के परिणामस्‍वरूप उपजी हुई जीवन-प्रणाली कहा है। अब यह अलग विचार का विषय है कि यह कथित पश्चिमी आधुनिक जीवन-प्रणाली कितनी वैज्ञानिक है?

वैज्ञानिक दृष्टिकोण (scientific temper) ऐसा शब्‍द है जिसकी बहुविध परिभाषा हो सकती है किंतु एक तो परिभाषा सबको स्‍वीकार करनी होगी और वह यह है कि जो चिंतन-प्रणाली न्‍यूनतम प्राक्कल्‍पना के आधार पर युक्ति-युक्‍त रूप से प्रतिपादित हो सके, स्‍थूल से सूक्ष्‍म की ओर अंतरण का सरलतम तरीका हो वही अपेक्षया अधिक वैज्ञानिक विधि है। जब विश्‍व की कोई व्‍याख्या सहज एवं सरलतर होती है तो कालजयी वैज्ञानिक सिद्धांत के रूप में उसे स्‍वाभाविक प्रतिष्‍ठा प्राप्‍त होती है। आज हम जिस दौर से गुज़र रहे हैं उसमें सूक्ष्‍म किंतु जटिल की अवधारणा को विज्ञान के विकास के निदर्श के रूप में स्‍वीकार कर लिया गया है। वस्‍तुत: बाह्यार्थवादी विज्ञानों का यह स्‍वाभाविक परिणाम भी है। वर्तमान सभ्‍यता इस प्रकार के वस्‍तुवादी विज्ञान (object-centric science) का ही परिणाम है। इस वस्‍तुपरक विज्ञान में दो प्रकार के तर्कशास्‍त्र प्रयुक्‍त होते हैं- एक वह जो मध्‍य पद के परिहार के नियम (Law of excluded middle) पर चलता है और दूसरा जो सादृश्‍य के संग्रह पर आधारित है। भेद और समता के तर्कशास्‍त्र पर आधारित इस विज्ञान ने न केवल मनुष्‍य के लिए सुविधामय जीवन के उपकरण जुटाए हैं अपितु एक प्रकार की संस्‍कृति का भी निर्माण किया है यह संस्‍कृति बाह्य जगत के संश्‍लेषण तथा विश्‍लेषण पर आधारित है। यह सब कुछ वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित संस्‍कृति के निर्माण से मनुष्‍य के जीवन को आनन्‍दमय बनाने के नाम पर हुआ है। क्‍या इस समस्‍त प्रयास का परिणाम मनुष्‍य का आनन्‍द है? इस प्रश्‍न का उत्तर कठिन है सच तो यह है कि आज विश्‍व का कोई ऐसा कोना नहीं है जहाँ संत्रास न हो, व्‍यक्ति इस कालखण्‍ड में संत्रस्त होने के लिए अभिशप्‍त है।

इस मानवीय अभिशप्‍तता का विस्‍तार विकास के नाम पर हुआ है। विकास का यह सभ्‍यता केंद्रित ढाँचा मनुष्‍य के आंतरिक विकास को कर पाने में अक्षम है क्‍योंकि इस वैज्ञानिक सभ्‍यता की निर्मिति ही जिस विज्ञान पर हुई है वह बाह्यार्थ पर केंद्रित है। अथवा यह कहा जाए कि जो अर्थ बाह्य-जगत में प्राप्‍त नहीं हैं उनकी निरर्थकता का डिंडिमघोष यह संस्‍कृति है। इस सभ्‍यतामूलक सांस्‍कृतिक अवधारणा से परिवृत्त जगत में ही हमें जीवन जीना है यह हमारी अस्तित्‍वात्‍मक बाध्‍यता है। इस अस्तित्‍वात्‍मक बाध्‍यता के बीच जीवन को सर्वांगीण बनाने की विद्या का नाम वेदांत है। स्‍वामी विवेकानन्‍द तथा स्‍वामी चिन्‍मयानन्‍द ने वेदांत को सभी प्रकार की सभ्‍यताओं में मूल्‍याधिष्ठित सांस्‍कृतिक जीवन की विधि के रूप में ही प्रस्‍तुत किया है।

अब यह प्रश्‍न विचारणीय है कि आज के युवा में लिए वेदांत की उपयोगिता क्‍या है? अर्थात मोक्षशास्‍त्र नामक इस विद्या प्रस्‍थान का आज के युवा के लिए क्‍या महत्‍व है? अथवा यह कि निवृत्तिमूलक शास्‍त्र की प्रवृत्ति-प्रधान जीवनकाल में कोई उपादेयता है अथवा नहीं? इस दिशा में द्वितीय विचारणीय प्रश्‍न यह है कि क्‍या वेदांत विद्या के विकास में युवाओं की कोई भूमिका है? क्‍या युवा मन युवा शरीर वेदांत नामक निवृत्ति नय का पथिक या पथ-निर्माता हो सकता है? इन महत्त्वपूर्ण प्रश्‍नों के अतिरिक्‍त यह भी अत्यंत महत्त्व का प्रश्‍न है कि क्‍या सूचना एवं तकनीक के इस युग के युवाओं की दुनियावी समस्‍याओं के समाधान की दिशा में वेदांत विद्या स्‍थान की कोई उपयोगिता है अथवा नहीं?

स्‍वाभाविक तौर पर मैं सबसे पहले युवा के लिए वेदांत की आवश्‍यकता पर विचार करना चाहता हूँ। यहाँ यह स्‍पष्‍ट करना आवश्‍यक है कि इस प्रश्‍न के उत्तर की तलाश में मैं किसी कालखण्‍ड-विशेष के युवा की चर्चा किए बिना जीवन के यौवन काल में वेदांत की अपरिहार्यता पर अपने विवेचन को केंद्रित रखना चाहूँगा। इस रूप में युवावस्‍था को विवेचित करने पर सहज ही ध्‍यान में आता है कि यह अवस्‍था जीवन का ऐसा कालखण्‍ड है जो विशिष्‍ट प्रकार की मानसिकता का निर्माण करता है। जिसके प्रमुख लक्षण है- जो कुछ स्‍थापित व्‍यवस्‍था है उससे विद्रोह, जीवन या जगत में जो कुछ जड़ गतिहीन या ठहरा हुआ दिखता है। उसे तोड़कर आगे बढ़ना, विपरीत स्थिति को अपने अनुसार अनुकूलित करने की अदम्‍य प्रवृत्ति। इस उद्दाम शक्ति को सगुण रूप से क्रियाशील रखने की विधि युवावस्‍था में वेदांत की उपयोगिता को सिद्ध ही नहीं करता उसे अत्यंत आवश्‍यक तथा अपरिहार्य भी बना देता है। भगवद्गीता इसको अत्यंत सशक्‍त तथा युक्तियुक्‍त ढंग से प्र‍स्‍तावित करती है। कर्ता होना मनुष्‍य की जन्‍मजात स्थिति है बिना कर्म किए कोई एक क्षण भी स्थित नहीं रह सकता। यौवन कर्म की शिखरावस्‍था है इसलिए इस अवस्‍था में कर्म-विकर्म सभी का निश्चित रूप से संपादन होता है। किंतु कर्म करते हुए नैष्‍कर्म की सिद्धि मनुष्‍य के कर्मजनित दु:ख को कम करते हुए उसके सक्रिय जीवन के आनन्‍द को बढ़ाती है। प्रत्‍येक व्‍यक्ति कुछ भी इसलिए करता है कि उसे वह करने में आनन्‍द आता है। इस आनन्‍द को निरतिशय करने की प्रणाली ही वेदांत है।

कर्म फल उत्‍पन्‍न करते हैं, फल का क्षय भोग से होता है इसलिए भोग कर्मफल के बंधन में बाँधता है अत: यह जिज्ञासा तो स्‍वाभाविक है कि कर्म या प्रवृत्ति के पथ पर आनन्‍द कैसे प्राप्‍त हो सकता है? इस प्रश्‍न का उत्तर भगवद्गीता है। मैं बार-बार भगवद्गीता की चर्चा कर रहा हूँ तो इसलिए कि वेदांत किसी विशिष्‍ट चिंतनसरणि का नाम नहीं है अपितु वेदांत उपनिषद् विद्या को ही कहते हैं (वेदांतों नाम उपनिषद् प्रमाण)। सभी कोशकार वेदांत शब्‍द का अर्थ उपनिषद् या रहस्‍य करते हैं। भगवद्गीता (माहात्‍म्य) के संबंध में तो विश्‍वख्याति है-

सर्वोपनिषदो गावो दोग्‍धा गोपालनन्‍दनः।
पार्थों वत्‍स: सुधीर्भोक्‍ता दुग्धमं गीतामृतं महत्।।

भगवद्गीता मात्र इसलिए महत्त्वपूर्ण नहीं है कि यह ईश्‍वरीय वाणी है अपितु इसलिए भी श्रेष्‍ठ है कि इसमें ईश्‍वर की प्राप्ति के सभी संभव उपाय प्रतिपादित है? लेकिन ईश्‍वरीय वाणी होने मात्र से ही गीता सबके लिए उपादेय नहीं है यह उपादेय है तो इ‍सलिए कि इसमें प्रति-प्रश्‍न हैं। गीताकार तो ईश्‍वर प्राप्ति के सहज साधन के रूप में परिप्रश्‍न को साधन के रूप में स्‍वीकार करते हैं। प्रश्‍न करने की इतनी छूट अपने आप में इस विद्या स्‍थान को विश्‍व-धर्म बनाने के लिए पर्याप्‍त है।

वस्‍तुत: वेदांत परलोक के चिंतन पर आधारित जीवन-प्रणाली नहीं है अपितु यह इस विश्‍व के संबंध में किया गया चिंतन है। गीता के प्रश्‍न जो समूचे वेदांत का हार्द प्रस्‍तुत करता है जीवन की दैनिक समस्‍याओं से जुड़े प्रश्‍न हैं। नचिकेता जब अपने पिता से चिल्‍लाकर पूछता है कि आपको बताना होगा कि आप मुझे किसको दे रहे हैं तो यह प्रश्‍न पारलौकिक नहीं है इस विश्‍व की नैतिक व्‍यवस्‍था से जुड़ा हुआ नितांत लौकिक प्रश्‍न है, जब नारद सनक, सनन्‍दन और सनत्‍कुमार से यह कहते हैं कि मैं मन्‍त्रविद् हूँ आत्‍मविद् नहीं तो ये प्रश्‍न शांति की तलाश में व्‍याकुल एक विद्वान के स्‍वाभाविक प्रश्‍न हैं, किसी पारलौकिक सत्ता के लिए आकुल-व्‍याकुल रहस्‍यवादी के प्रश्‍न नहीं हैं। अत: यह तो स्‍पष्‍ट ही है कि वेदांत का उद्भव और विकास नितांत लौकिक किंतु आध्‍यात्मिक प्रश्‍नों के समाधान के लिए हुआ है। यह जगत से पलायन का दर्शन न होकर जगत के मूल रूप को समझते हुए उचित व्‍यवहार का जीवन-विद्यापथ है।

इसको भगवद्गीता के विषाद-योग नामक प्रथम अध्‍याय से समझा जा सकता है। इस अध्‍याय में अर्जुन की स्थिति किसी भी समकालीन युवा के समान ही है। उसके प्रश्‍न प्राचीन मूल्‍य-व्‍यवस्‍था तथा नवीन वैश्विक परिस्थिति के साथ जूझ रहे किसी भी युवा के स्‍वाभाविक प्रश्‍न हैं। गीता प्राचीन व्‍यवस्‍था तथा नवीन चुनौतियों का समुचित उत्तर है। प्राचीन मूल्‍यों के प्रति आसक्‍त अर्जुन प्राचीन मूल्‍यों, परंपराओं एवं कुल धर्म की रक्षा के लिए युद्ध के नियम कर्म से भाग जाना चाहता है उसने अपने लिए नियत कर्म के फलों की नि:सारता प्रतिपादित करते हुए कहा कि-

न काङ्क्षे विजयं कृष्‍ण न च राज्‍यं सुखानि च।
किं नो राज्‍येन् गोविन्‍द किं भोगैर्जीवितेन्‍ वा।। -132

प्रथमदृष्‍ट्या यह त्‍याग लगता है लेकिन वैराग्‍यजनित त्‍याग न होकर गहरे शोक के क्षणों में उत्‍पन्‍न होने वाली त्‍यागवृत्ति है। अर्जुन विजय, राज्‍य सुख सब कुछ अपने संबंधियों के लिए चाहता है। परंतु जब उसे यह दिखाई देता है कि सभी अपने प्राण का मोह त्‍यागकर युद्धभूमि में आ गए हैं और ऐसी स्थिति में विजय तो इनको मारकर ही होनी है फिर कौन होगा विजयोपरांत प्राप्‍त राज्‍य का भोक्‍ता?

इस प्रश्‍न के साथ ही अर्जुन के समक्ष एक और विकट प्रश्‍न है वह है सामाजिक रूढ़ि‍ तथा परंपरागत नैतिकता के उल्‍लंघन का। वह एक ऐसा व्‍यक्ति है जो समाज और परंपरा के आधार पर चलना चाहता है। अपने वैयक्तिक सत्‍यानुभूतियों को आधार बनाकर नहीं। कृष्‍ण का उपदेश कथित नैतिकता के बाह्य बंधनों को अस्‍वीकार कर आंतरिक अनुभव एवं शक्ति के विकास का मार्ग है। जीवन का यथार्थ दो संसारों के सीमांत पर विद्यमान है। युवावस्था में यह संघर्ष और अधिक कठिन हो जाता है। क्‍योंकि इस आयुखण्‍ड में व्‍यक्ति कुछ करने का प्रयास तो करता है पर वह एक अव्‍याख्‍येय निर्णय विहीनता की स्थिति में फँसने लगता है। इस कालखण्‍ड में न तो अपने आपको जानता है न तो अपने साथियों को ही जानता है और न ही वह विश्‍व की वास्‍तविक स्थिति तथा प्रकृति को ही जान पाता है। विश्‍व के दुरदम्‍य संघर्ष में उसे जिस रूप में खड़ा होना पड़ता है उस प्रकार की स्थिति में पलायन करने का मानस बना स्‍वाभाविक तथा अवश्‍यंभावी है। अर्जुन इन्‍हीं कारणों से युद्धभूमि को छोड़ना चाहता है। अर्जुन की स्थिति हर युवा की है, युवा सामान्‍यत: जीवन के युद्ध से घबराता नहीं है लेकिन विजय के लौकिक रास्‍ते को वह उचित नहीं मानता। लौकिक रास्‍ता अर्थात् सत्‍य और अनृत् के युग्‍म से निर्मित नैसर्गिक रास्‍ता। परिणामत: कार्पण्‍यता से घिर जाता है। वेदांत इस स्थिति में स्‍वाभिमानपूर्वक कर्म के लिए प्रचोदित करने का नय है। कर्त्तव्‍य-पथ पर अनुकूल परिणाम की कामना के बिना कर्म संपादन को ही जीवन लक्ष्‍य मानकर कार्य में प्रवृत्त होने की प्रेरणा इसी नय-विथि से प्राप्‍त होती है। इतना ही नहीं यह जीवन में अनायास प्राप्‍त होने वाले प्रत्‍येक संत्रास का समुचित प्रत्‍युत्तर है। यह विषय वासना से मन को हटाकर सर्वोच्‍च शुभ तक अनथक चलते रहने की प्रेरणा है।

इस वेदांत-‍वीथि पर युवा की चल सकता है इसी कारण से यह हर युग के युवा का धर्म है। उपनिषदों के नायक नचिकेता, उद्दालक, श्‍वेतकेतु, सत्‍यकाम या आरूणि आदि सबके सब युवा हैं युवा मन ही सपने सजाता है सपनों को सच करने, साकार करने और अन्तिम परिणाम तक पहुँचाने की युयुत्‍सा रखता है। कर्त्तृत्त्वाभिमान से विरत रहते हुए नियम कर्मों को निश्चित परिणाम तक पहुँचाने का सामर्थ्‍य मात्र युवा में ही है। वेदांत विद्या तो युवा जनों की ही विद्या है। नचिकेता से आरूणि तक सभी मंत्रद्रष्‍टा ऋषि युवा हैं, शंकराचार्य से विवेकानन्‍द तक सभी आचार्य युवा हैं। इस प्रकार के युवाजन-सम्‍मत दर्शन प्रस्‍थान, युवकोचित धर्म-दृष्टि को युवओं के लिए उपादेय प्रतिपादित करने का प्रयास पिष्‍ट पेषण मात्र है।

वेदांत युग का धर्म है और इस युग का धर्म आनुष्‍ठानिक नहीं हो सकता क्‍योंकि यह कालखण्‍ड स्वतंत्रता के घोष का कालखण्‍ड है। समस्‍त बंधनों से मुक्ति का कालखण्‍ड है। ऐसे काल में सांस्‍थानिक धर्म-व्‍यवस्‍था अपने को उपादेय सिद्ध नहीं कर सकती। जब भी वह समकालीन विश्‍व पटल पर अपने को स्‍थापित करने का प्रयास करेगी उसका जड़-आतंकी रूप ही सामने आएगा क्‍योंकि अनुष्‍ठान-केंद्रित सांस्‍थानिक धर्म में गतिशीलता तो संभव ही नहीं है। फलत: इसमें व्‍यक्ति की निजता की रक्षा संभव नहीं है। वैयक्तिक स्वतंत्रता की रक्षा संभव नहीं है। अत: इस युग को एक वैचारिक धर्म की आवश्‍यकता है। चेतना के आरोहण करा सकता है।

वेदांत ही इस भौतिक त्रि-आयामी विश्‍व में चतुर्थ आयाम की संकल्‍पना को साकार कर सकता है। त्रि-आयामी विश्‍व में धर्म, अर्थ, काम का कार्य कारण संबंध-जनित बंधन है। मुक्ति वह चतुर्थ आयाम है जो इनकी कार्य-कारण श्र्ंखला को तोड़ता है। कार्य-कारण कर्मफल की अनादि श्रृंखला को स्‍थगित कर देना और कालांतर में उसे तिरोहित कर देना ही चतुर्थ आयाम की संप्राप्ति है। यह वह स्थ्‍िाति है जिसमें ईश उपनिषद् (मन्‍त्र 5) सार्थक हो उठता है कि-

तदेजति तन्‍नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्‍तरस्‍य सर्वस्‍य तदु सर्वस्‍यास्‍य बाह्यत:।।


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